मित्रो!
मैं भीम, सुजानगढ़ की यात्रा करते हुए पुनः लोहिया महाविद्यालय, चूरू पहुँच गया हूँ । इस यात्रा के अनेक खट्टे-मीठे अनुभव, स्मृति मञ्जूषा में सजे हुए हैं। इस कालावधि में पारिवारिक चुनौतियाँ भी आईं, परन्तु साथियों के सहयोग से रास्ता निकलता गया। पुनः चूरू पहुँचने में अनेक ज्ञात-अज्ञात व्यक्तियों का प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष संबल और सहयोग मिला, उन सबका आभार कैसे व्यक्त करूँ?
मूल प्रशन अभी वहीं खड़ा है कि चूरू में स्थान उपलब्ध होते हुए भी मैं अनावश्यक तंग हुआ । यद्यपि नौकरी में स्थान विशेष किसी की बापौती नहीं , अतः किसी के आने पर मुझे कहीं जाना पड़ता तो कोई कष्ट नहीं होता । मैंने अपने जीवन में सदैव सकारात्मक सोच रखी, कभी किसी का अहित नहीं किया । यह आत्मप्रशंसा नहीं बल्कि मेरी जीवन दृष्टि का सूचक है। मैंने कभी संकीर्णता नहीं रखी, विभिन्न धाराओं के बीच संवाद और समन्वय का प्रयत्न किया तो मुझे सदैव यह प्रतिदान क्यों? यह प्रश्न मुझे सालता रहा। भक्त नहीं होते हुए भी मैंने यह प्रश्न ईश्वर को समर्पित किया, तभी मुझे शान्ति मिली, और यह मानसिकता दृढ़ हुई कि मैं अपना काम करूँ, अगला अपना। मुझे इस दौरान ही अहसास हुआ कि कोई मेरा भी शत्रु हो सकता है , मैं तो हर जातक में मित्र की छवि के ही दर्शन करता हूँ । समता की ऊँचाई से, प्रतिशोध की ढलान की ओर फिसलने से रुकने में सदैव की तरह अब भी ईश्वर मेरी मदद करेगा!
आप सबका अभिवादन!